
मैं आज फिर डाकिये को बेवजह डाँट रहा था, फिर पुचकार रहा था।
सच तो ये है कि तूने आज भी मेरे खत का जवाब नहीं भेजा है।
ना जाने तू किस बात से डर रही है? दुनिया से…?
इस दुनिया से तो बिलकुल ना डरना।
ये तो पहले से ही गरीबी-अमीरी, जात-पात, सच-झूठ के दलदल में फँसी है।
जैसे-तैसे अगर कोई इससे निकल भी जाए, तो कोई बम धमाका, महंगाई या भ्रष्टाचार फिर से धकेल देता है इंसान को उसी दलदल में।
ज़रूरी नहीं है कि तू “हाँ” ही लिखे खत में,
पर “ना” कहने के लिए भी क्या इतना इंतज़ार करवाना ज़रूरी होता है?
कल पड़ोस वाली चाची बता रही थीं कि कोई शहर का लड़का आया था तुझे देखने के लिए।
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुझे वो पसंद आया या नहीं।
पर तू खुद सोच, शहर में कितनी तकलीफ़ें हैं — पैसा तो है, पर सुकून नहीं।
वही शहरवाले तो हर छुट्टी में हमारे गाँव की मिट्टी को छूने आते हैं।
यहाँ की खुली हवा, पीपल की छाँव, और खेतों की ख़ुशबू… ये सब शहर में कहाँ?
वो कन्हैया बता रहा था कि उसके घर के पास एक पक्का मकान बन रहा है —
कोई शहर का साहब अब यहाँ रहना चाहता है।
डॉक्टर साहब ने उसे गाँव की हवा में रहने की सलाह दी है।
हमारे गाँव की पढ़ाई भी अब किसी शहर से कम नहीं।
इश्वर काका की बेटी ने अभी 10वीं में शहर के बच्चों को पीछे छोड़ दिया है।
मैं भी तो यहीं पढ़ा हूँ, फिर शहर जाकर कॉलेज की पढ़ाई पूरी की,
और आज वापस आकर अपनी खेती में वही ज्ञान लगा रहा हूँ।
कभी मेरे खेत की ज़मीन बंजर कहलाती थी, आज वही सबसे उपजाऊ ज़मीन बन चुकी है।
मेरे दोस्त मुझसे मज़ाक कर रहे थे –
“कहीं तुझे डाकिये से इश्क तो नहीं हो गया?”
मैंने उन्हें चार थप्पड़ मारे और दोस्ती तोड़ दी।
अब तो सिर्फ़ मौत से ही दोस्ती करनी बाक़ी रह गई है।
माँ भी कह रही थी कि मैं अब कमज़ोर हो गया हूँ।
वैसे हर माँ को उसका बेटा दुबला दिखता है,
पर इस बार शायद माँ सच कह रही थी।
अब उसे कौन समझाए कि इश्क़ में ना भूख लगती है, ना प्यास।
ये एक और ख़त लिख रहा हूँ तेरे नाम।
इस बार इसका जवाब ज़रूर देना,
वरना फिर डाकिये को डाँटूँगा, मारूँगा और फिर पुचकारूँगा — बेवजह।
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