एक ऐसा रिश्ता भी है…
जब मैं पैदा हुआ था, शायद तब से ही वो मेरे साथ था। तब शायद मैं उसे जान नहीं पाया था। फिर भी बाद में ये एहसास हुआ कि ये तो तब भी वहीं था। जब मैं पांच साल का हुआ, तब मैंने उसे देखा—और ये कहूं कि देखा तो पहले भी था, पर समझा पहली बार। उसके बाद तो वो मेरे साथ मेरे साये की तरह रहा और आज भी मेरे साथ है।
मेरे सुख-दुख, सफलता-असफलता की हर कहानी में मैंने उसे पाया है। मेरी जिंदगी में जो रंग मुझे भरने थे, वो रंग उसमें ही समाए थे। कभी रंगों से वो भीगा भी और साल-दर-साल मैंने उसे नए परिवेश में देखा भी, परंतु उसकी रूह हमेशा वही रही। बदला तो बस शरीर ही था। मौसम बारिश का हो या गर्मी का, उसने उस ज्ञान को, जो उसने अपने भीतर रख रखा था, उस पर कभी आंच नहीं आने दी।
ख्वाब हो या हकीकत, हर वक्त—या ये कहूं हर सांस में—वो था। जब-जब वो मुझे नहीं मिलता, एक अजीब सी बैचेनी मुझे हो जाती थी।
लगता था दुनिया ही खत्म हो गई हो। परंतु साल के कुछ महीने ऐसे भी थे, जब मैं उसे भी आराम दे देता था। मां के हाथ के बने पराठे, सैंडविच, अचार, सब्जी, रोटी या मिठाई—हर चीज हमने मिल-बांट कर खाई थी। कई बार गुस्से में और जाने-अनजाने मैंने इस पर जाने क्या-क्या फेंका, कभी इसे ही धक्का दे दिया, पर इसने कभी मेरी बात का बुरा नहीं माना। जब-जब मुझे जरूरत हुई, इसने मेरा साथ दिया।
जैसे-जैसे साल बीतते गए, मैं बड़ा होता गया और वो दुबला हो गया। जब मैं कॉलेज में आया, तो सोचा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? कुछ साल तो मुझे बिल्कुल ही समझ नहीं आया।
फिर जब कॉलेज का आखिरी साल आया, तो लगा कि अब मैं इसे मां के हाथ से बना खाना नहीं खिलाता हूं, और शायद यही कारण रहा इसके दुबले होने का—या फिर शायद ये जिम जाने लगा हो 😄। पर ये तो हमेशा साथ ही रहा।
मेरे बिस्तर पर आराम करता, तो कभी टेबल या कुर्सी पर, और कभी मैं इसकी गोद में सिर रखकर सो जाता था। कॉलेज के दिनों में शायद इसने भी मेरे संग इश्क किया होगा। अपने महबूब को देखकर कभी इसको शरमाते हुए तो नहीं देखा, पर हां, अंगड़ाई जरूर लेता था। बस और ट्रेन में हर जगह मेरे लिए जगह रखता था।
नौकरी लगी तो भी साथ था, पर फिर ये और छोटा हो गया था। पर एक अच्छी बात हुई कि अब फिर से मैंने इसे मां के हाथ का बना खाना खिलाना शुरू कर दिया था। कुछ साल बाद, जब शादी हुई, तो पत्नी के हाथ का खाना ये भी खाने लगा मेरे साथ। जब अकेला रहता हूं तो इसके संग बातें भी हो जाती हैं। बातों में लफ्ज़ नहीं होते, बस एहसासों से ही बात होती है।
एक दिन इसी एहसास में इसने कहा – “शुक्रिया।”
मैंने पूछा – “किसलिए?”
तो कहता है – “तुम्हारे बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। अब जब तुम कामयाब हो गए हो तो शायद मेरी जरूरत नहीं हो तुम्हें, फिर भी तुम मुझे अपने से अलग नहीं करते हो।”
मैंने इससे कहा – “कभी धड़कन दिल से अलग हुई है जो तुम्हें अलग कर दूं? जब-जब मैं गिरा, ये भी गिरा, और फिर हम साथ उठे और आगे बढ़े। मुझे ऐसा लगता है कि इसका और मेरा एक गहरा रिश्ता है। ये रिश्ता इसकी और मेरी रूह का है, जो कभी अलग नहीं होने वाली।
जब मैं काम करना बंद कर दूंगा, तो ये मेरी कलम, डायरी और टोपी को संभालेगा, और मेरे मरने के बाद कुछ देर तो रोएगा। परंतु मेरा दूसरा जन्म होते ही हम फिर साथ-साथ होंगे।”
ये कहानी थी मेरी और मेरे बस्ते (बैग) की—जो नाम आप इसे देना चाहें। जब से पैदा हुआ और जब इस दुनिया को छोड़ के जाऊंगा, हमेशा साथ रहेगा। ये मेरे हर किस्से में, हर कहानी में रहेगा। अभी भी देख रहा है और कह रहा है – “क्या लिख रहे हो?”

जब इसे अपने कंधे पर रखता हूं, ऐसा लगता है कोई है—जो साथ है, साथ था और साथ रहेगा।
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good one
shukriya bhai
Bahut khoob
thank you mam
ग़ज़ब का चक्र हैं ये भी, बस्ते तरह-तरह के…
किताबों के, जवानी के, जिम्मेदारी के, बीमारी के…
Bahut khoobsurat rachna Bachpan ke yaad aagye
thanks dr sahab
[…] एक ऐसा रिश्ता जो हमेशा साथ रहा… […]