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रावण दहन: सिर्फ बुराइयों का नहीं, अच्छाइयों का भी प्रतीक | एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण

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आज रावण दहन हुआ, जैसा हर साल होता है और कई सालों से होता आ रहा है। मैं भी इस बार फिर से गया रावण दहन देखने। हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से जब भी मैं रावण दहन देखने जाता हूँ, तो कोशिश करता हूँ कि अपनी कोई न कोई बुराई उस आग में जला आऊँ। इस बार भी जब पहुँचा, तो वही माहौल था जैसा हर बार होता है।

श्रीराम, श्रीलक्ष्मण और श्रीहनुमान के वेश में आते हुए बालक सच में भगवान-स्वरूप प्रतीत हो रहे थे। और फिर बच्चे तो भगवान का ही रूप होते हैं।

कार्यक्रम शुरू हुआ और अंत भी हुआ। लेकिन इस बार अंत के बाद मेरे मन में एक अलग ख्याल आया—क्यों न इस बार रावण की राख घर ले जाऊँ? जब तक रावण का पुतला पूरी तरह न जला, मैं वहीं खड़ा इंतज़ार करता रहा। और सोचता रहा—अगर आज रावण सच में होता तो कैसा होता?

मेरे दिमाग में हर तरह के फिल्मी खलनायक घूमने लगे। पर एहसास हुआ कि उन सबको मिलाकर भी शायद रावण जैसा व्यक्तित्व न बन पाए। क्योंकि रावण बुरा ज़रूर था, पर उसने अपनी सीमाएँ कभी नहीं लांघीं।

राख लेने के लिए मैंने पास की दुकान से एक कागज़ लिया, जिस पर रावण की कुछ “बुराइयाँ” लिखी थीं। राख समेटकर घर आया। लेकिन जैसे ही कागज़ खोला—राख गायब थी और कागज़ भी बदला-बदला नज़र आया। उस पर अब रावण की बुराइयाँ नहीं थीं, बल्कि कुछ ऐसी बातें लिखी थीं जो मुझे सोचने पर मजबूर कर गईं।


रावण का संयम और धैर्य

रावण के अंदर जो संयम था, वह आज कहीं देखने को नहीं मिलता। यह वही रावण था जिसने श्रीहनुमान और अंगद के दरबार में आने पर भी अपने क्रोध पर नियंत्रण रखा। वह जानता था कि विभीषण उसका रहस्य जानता है, फिर भी उसने उसे जीवित रहने दिया। यह रावण की ऐसी विशेषता थी, जो आज के समय में दुर्लभ है। आज तो भाई-भाई की जान के दुश्मन बने बैठे हैं।


निडर रावण

आज बारिश भी हो रही थी, आँधी-तूफ़ान था, लेकिन रावण का पुतला अडिग खड़ा रहा। वह प्रतीक था उस रावण का, जो तब भी निडर खड़ा रहा जब उसे पता था कि श्रीराम के हाथों उसकी मृत्यु निश्चित है। आज के इंसान छोटी-सी कठिनाई में टूट जाते हैं, पर रावण अंतिम क्षण तक डटा रहा।


रावण और मर्यादा

आजकल के रावण दहन कार्यक्रम केवल नाच-गाने और आतिशबाज़ी का तमाशा बनकर रह गए हैं। लेकिन असली रावण ने जब माता सीता का हरण किया, तब भी उनके साथ कभी कोई दुर्व्यवहार नहीं किया। यह उसकी मर्यादा का प्रतीक था।


ज्ञान और भक्ति का स्वरूप

रावण केवल खलनायक ही नहीं था, वह ज्ञानी भी था। शिव तांडव स्तोत्र का रचयिता वही था। रावण भगवान शिव का परम भक्त था और उसके पास अनेक सिद्धियाँ थीं। उसका यह ज्ञान और भक्ति आज कहीं देखने को नहीं मिलती।

कहते हैं कि रावण का अहंकार उस पर भारी पड़ा। लेकिन देखा जाए तो आज का इंसान तो हर पल अहंकार में जीता है। उसकी जेब में रखा मोबाइल फ़ोन उसका सबसे बड़ा अहंकार है—वह उसे दिखाकर, फोटो खींचकर या उसकी कीमत बताकर अपने “रावण” को जीवित रखता है।

लक्ष्य और आत्मविश्वास

रावण की एक और खासियत थी—वह अपने जीवन को हमेशा एक लक्ष्य लेकर जीता था। सीता हरण के पहले तक वह एक महान राजा और प्रबल योद्धा था। यहाँ तक कि जब युद्ध में उसके भाई और पुत्र एक-एक करके मारे गए, तब भी उसने हार नहीं मानी। यह उसके साहस और आत्मविश्वास को दर्शाता है।

आज की Gen-Z पीढ़ी छोटी-सी बात पर निराश और हताश हो जाती है, जबकि रावण ने अपने अंतिम समय तक धैर्य और विश्वास बनाए रखा।


रावण दहन आलोचना

असली दहन किसका?

जैसे ही मैंने फिर से कागज़ पर नज़र डाली, उस पर अब केवल रावण की बुराइयाँ थीं और राख वैसी ही थी जैसी पहले थी। पर मेरे भीतर एक सवाल रह गया—क्या रावण सच में केवल बुराई का प्रतीक था?

आज जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि असली रावण दहन बाहर नहीं, भीतर होना चाहिए।

  • अहंकार का दहन
  • लालच का दहन
  • ईर्ष्या और द्वेष का दहन
  • दिखावे और झूठ का दहन

क्योंकि अगर यह नहीं जलता, तो बाहर का पुतला जलाने का कोई अर्थ नहीं।


अंतिम विचार

रावण चाहे जैसा भी था, पर उसके भीतर कुछ गुण भी थे। संयम, साहस, निडरता, ज्ञान और भक्ति—ये सब बातें हमें याद दिलाती हैं कि इंसान सिर्फ बुराइयों का नहीं, अच्छाइयों का भी मिश्रण होता है।

शायद यही वजह है कि मुझे आज रावण की राख में उसकी अच्छाइयाँ दिखीं। उम्मीद है, जो लोग मेरे साथ वह राख लेकर गए होंगे, उन्हें भी वही नज़र आया होगा।

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Amandeep
Amandeep
2 days ago

वाकई, सहमत हूँ | इस दृष्टिकोण से इसे आप ही सोच सकते हैं…इंसान अपने “रावण” को जीवित रखता है।